January 03, 2023

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किस बरहमन ने कहा था कि ये साल अच्छा है !!



आलेख । बादल सरोज । सामान्य रस्म और रिवाज गुजरे साल का गुणगान और आने वाली वर्ष के लिए उम्मीदों के पहाड़ खड़े करने की है। मगर 2022 के लिए यह औपचारिक रस्मअदायगी भी नहीं की जा सकती। यह साल अनेक अशुभों, पीड़ाओं और त्रासदियों के जख्मों को छोड़कर और अनगिनत आशंकाओं के दरवाजे खोलकर गया है। इसकी विदाई देश, दुनिया और मानवता पर जिस बोझ को डालने के साथ हुयी है, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती, क्योंकि कैलेण्डर बदलने के साथ वह बोझ अपने आप उतरने वाला नहीं है।

कोरोना की महाविपदा का बैकलॉग बजाय पूरा होने के चक्रवृध्दि ब्याज से भी तेज रफ्तार से बढ़ा है। इसके बहाने हुकूमतों द्वारा जनता के ऊपर किये गए हमलों के असर इस दौरान कम होने की बजाय और ज्यादा तेजी के साथ उभर कर आये। शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक सुविधाएं, रोजगार, बेहतर जीवन स्तर सहित सभ्य समाज के जितने भी आर्थिक संकेतक हैं, उनकी फिसलन भयावह तेजी के साथ नीचे गयी। इतनी नीचे कि सारी सदाशयता, सदिच्छा और शुभाकांक्षाओं को जोड़कर भी नए साल में उनके ऊपर आने की आशा नहीं की जा सकती। उनको लेकर जिस तरह का रुख हुक्मरानों ने अपनाया हुआ है, जिस तरह की नीतियां - एक केरल को छोड़कर - बाकी सभी सरकारें बना और अपना रही हैं, उनको देखते हुए तो मौजूदा राजनीतिक हालात को बदले बिना यह लगभग नामुमकिन ही लगता है।

गिरावट सिर्फ आर्थिक संकेतकों तक ही नहीं है ; भारत में तो पराभव सर्वआयामी और सर्वग्रासी है। यहां समस्या सिर्फ जनता के विराट बहुमत के वर्तमान को कुहासे में धकेल कर उसके भविष्य को ही अंधकारमय ही नहीं किया जा रहा, बल्कि पिछले 5 हजार वर्षों में धरा के इस हिस्से पर बसी मानवता ने जितनी भी मनुष्यता पाई थी, हड़प्पा से लेकर आधुनिक सभ्यता तक का जो भी सकारात्मक हासिल था, उसे नष्ट किया जा रहा है। सदियों के साथ से हासिल बहनापा और भाईचारा, एक दूसरे के प्रति संवेदना और सहानुभूति, प्यार और अनुराग, साझेपन और सदव्यवहार के रिश्ते सहित सब कुछ को तबाह किया जा रहा है। हवाओं में जहर घोल कर पूरे सामाजिक ताने–बाने को विषाक्त कर दिया गया है।

भारत में भविष्य के प्रति समझदारी का मूर्तमान रूप 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया संविधान था -- धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और बराबरी के अधिकारों वाले राज्यों का संघीय ढांचा इसकी पहचान था। अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद भारत का संविधान इस देश के 5 हजार वर्षों के इतिहास मे पहला ऐसा प्रामाणिक और सार्वत्रिक दस्तावेज़ है, जो सबकी समानता का कम–से–कम लिखित प्रावधान तो करता है। जो जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, क्षेत्र के आधार पर किसी भी तरह के विभेद, पक्षपात, असमानता को प्रतिबंधित करता है -- उसे दंडनीय अपराध बनाता है। अपने स्पष्ट वर्गीय आग्रहों के बावजूद भारत के संविधान का नीति-निर्देशक हिस्सा संपत्ति के केन्द्रीयकरण के निषेध और आमदनी के अधिकतम अंतर को एक और दस के अनुपात मे रखने की बात करता है । समाज की चेतना से अंधविश्वास और कुरीतियों को हटाकर सरकार पर ज़िम्मेदारी आयद करता है कि वह उसे वैज्ञानिक रुझान से संस्कारित करे ।

पूरी बरस यह संविधान त्रिशूल से भेदा जाता रहा। अंबानी और अडानी की दौलतों के पहाड़ खड़े करने के लिए, सबको सस्ती और सुलभ शिक्षा की अवधारणा को खत्म कर देसी–विदेशी कारपोरेट की स्कूल-कालेजों की दुकाने खोलने के लिए, पोंगापंथ, अंधश्रद्धा, गणेश की प्लास्टिक सर्जरी और गांधारी की टेस्टट्यूब संतानों की कहानियों का तिलिस्म रचने और महिलाओं की गुलामी की बेड़ियों को आभूषण साबित करने की ठगी चलाने के लिए प्रकाश लाने वाले सारे रोशनदान और खिड़कियाँ बंद करना जरूरी जो हो जाता है।

कारपोरेट-हिन्दुत्व के इस गँठजोड़ के विजयीध्वज को गाड़ने के लिए संविधान और लोकतन्त्र की समाधि जरूरी हो जाती है। मौजूदा हुकूमत इस इरादे को छुपाती भी नहीं है। वर्ष 2022 के पूरे साल उसने यही किया है। इस लिहाज से यह लोकतंत्र पर हमला या तानाशाही भर नही है। यह कॉर्पोरेट पूंजी के सर्वसत्तावाद के राजतिलक के बाद निर्ममतम हिंदुत्व की ताजपोशी का कर्मकांड है। मनुवादी तालिबान का ध्वजारोहण है।

इस वर्ष की राहत देने वाली एकमात्र बात है मेहनतकश अवाम का सड़कों पर उतर कर लड़ना और पढ़े–लिखे बौद्धिक समाज के बड़े हिस्से द्वारा, बिना डरे, मुखरता के साथ प्रतिरोध करना। उम्मीद की किरण यही है, जिसके रहते यह भरोसा किया जा सकता है कि आने वाले साल में कुहरा और कुहासा छंटेगा। ऐसी सारी जद्दोजहदों, मुहिमों, अभियानों, आंदोलनों, संघर्षों की ताब और तपिश बढ़ेगी। बदलाव होगा – इसलिए कि दुनिया में आज तक जो भी बदलाव हुए हैं, वे जनता के संघर्षों से ही हुए हैं।

(लेखक ’लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं)





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